“क्या पहना जाए, हाँ हरी शर्ट पहनता हूँ उसे देखते ही वो आग बबूला हो जाएगी । उसे यकीन हो जाना चाहिए कि मैं उसकी पसंद ना पसंद को एकदम भूल चुका हूँ ।” वैभव अलमारी में लटकी सभी शर्टों को अदल बदल कर देखते हुए खुद से बात कर रहा था ।
आज 12 साल बाद उससे मिलने जा रहा था । बहुत कुछ बदल गया था । वैभव के आधे बालों पर वक्त ने सफेदी पोत दी थी । वजन पहले से थोड़ा बढ़ गया था । मगर वो संतुष्ट था यह सोच कर कि दिपाली भी शादी के बाद मोटी हो ही गई होगी ।
वैभव ऐसे तो पहले भी दिल्ली आता ही था मगर उसकी कभी हिम्मत नहीं हुई की दिपाली को एक मैसेज कर के कह दे कि वह उससे मिलना चाहता है । हिम्मत करता भी कैसे ! एक दूसरे से दूर होने का फैसला भी तो उसी का था । वैभव दिपाली से उतना ही प्यार करता था जितना दिन को रौशनी से होता है । दिपाली के बाद वैभव ने अपनी ज़िंदगी का अंधेरा दूर करने के लिए किसी दीये का भी सहारा नहीं लिया था । बस अनाथ बच्चों के लिए बनाई चैरीटी के लिए काम करते हुए अपनी सारी ज़िंदगी बिताने का फैसला कर लिया था । जब कोई दोस्त उसे शादी करने के लिए ज़ोर देता तो उसका मुस्कुरा कर एक ही जवाब होता “आत्मा का सुकून तो दिपाली के जाते ही छिन गया था और शरीर को सुकून की अब चाह नहीं रही इसी लिए अब सारा जीवन इन अनाथ बच्चों का भविष्य सुधारने की कोशिश में मन के सुकून का ख़याल ही रखना है ।”
वैभव अनाथ था । किसी तरह वक्त और नियती से लड़ता हुआ काॅलेज तक पहुंचा था । यहाँ जब उसे दिपाली का साथ मिला तो उसे लगा भगवान ने उसकी ज़िंदगी की सारी खुशियाँ उसे सूद समेत लौटा दी हैं मगर वो भला इंसान क्या जानता था कि यह सुहानी सी हवा एक ऐसे भयानक तूफान की आहट थी जो उसकी ज़िंदगी की बची खुची खुशियाँ भी उड़ा कर ले जाने वाली हैं । दिपाली ने जब उसके बारे में घर में बताया तो उसका सारा परिवार वैभव के खिलाफ होगया । वैभव होनहार था, पढ़ा लिखा था, उसका भविष्य उज्वल था मगर एक अनाथ होने की वजह से दिपाली के परिवार ने उसे मंज़ूर नहीं किया ।
दिपाली अपना सामान बांध कर वैभव के पास आगयी थी मगर वैभव ने उसे यह कह कर वापिस भेज दिया कि “दिपाली माँ बाप और परिवार का ना होना क्या होता है मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ । भले ही मैं तुमें दुनिया की सारी खुशिताँ दे दूँगा मगर माँ बाप फिर से ला कर नहीं दे सकूंगा । आज तुम्हें नहीं दिख रहा हो मगर भविष्य में तुम खुद को कोसोगी ।” दिपाली ने बहुत समझाने की कोशिश की मगर वैभव नहीं माना ।
आज 12 साल गुज़र गये थे इस घटना को । वैभव ने इस बार ठान ली थी कि वो दिपाली से मिलेगा । फेसबुक की मेहरबानी से उसने दिपाली को ढूंढ लिया था और उसे मैसेज कर के मिलने का पूछा । बिना किसी सवाल जवाब के दिपाली ने भी मिलने के लिए हाँ कर दी थी ।
घर से निकलते हुए वैभव ने हरी शर्ट उतार कर नीली शर्ट पहन ली थी । आधा घंटे के मैट्रो सफर के बाद वैभव मैट्रो से उतर कर पाँच मिनट पैदल चलने के बाद सामने के बाद सामने एक रेस्टोरेंट था जिसका पता दिपाली ने दिया था और कहा था यहीं वो मिलेगी । वैभव काँच के दरवाजे को अंदर की तरफ धकेल कर आगे बढ़ा । सामने एक वेटर खड़ा था जिसने वैभव को देखते ही पूछा “मिस्टर वैभव ?” वैभव थोड़ा चौंका और फिर हाँ में सर हिलाया । वेटर ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया । रंग बिरंगी दिवारों के बीच आलीशान कुर्सियाँ और मेज लगे देख कर ना जाने क्यों वैभव का हाथ बार बार अपने पर्स पर जा रहा था । वेटर के पीछे चलते हुए वो सीढ़ियों से हो कर दूसरे फ्लोर पर पहुंच गया था जहाँ काॅर्नर के टेबल पर दिपाली वैभव का इंतज़ार कर रही थी ।
दिपाली ने आँखों पर चश्मा चड़ा रखा था । वैभव को देखते ही दिपाली खड़ी हुई और हाथ मिला कर वैभव का स्वागत किया । पहले दस मिनट दोनो कुछ नहीं बोल पाये । शायद बारह साल से भूखी नज़रों का पेट भर रहे थे दोनों । वैभव की सोच के बिल्कुल उलट दिपाली पहले से कमज़ोर दिख रही थी । चेहरे की खूबसूरती को उम्र की बेनूरी से ज़्यादा वैभव की कमी ने फिका कर दिया था । आँखों के नीचे काले धब्बे समय के साथ और गहरे हो कर वैभव को बता रहे थे कि एक ज़माना गुज़र गया चैन से सोये हुए ।
“तो कैसे हो ? इतने सालों बाद मिलने का ख़याल कैसे आगया ?” दिपाली के रूखे से सवाल ने खामोशी के घमन्ड को तोड़ा ।
“ठीक हूँ । बस ऐसे ही सोचा कि खबर तो लूं कि मेरे बाद मेरी ज़िंदगी का ख़याल अच्छे से रखा गया या नहीं ।” बारह साल के दर्द को अपनी झूठी मुस्कुराहट में समेटने की नाकाम कोशिश करते हुए थरथराती हुई आवाज़ के साथ वैभव ने जवाब दिया ।
“तो कैसा लगा ज़िंदगी का हाल ?”
“यही लग रहा है कि मेरी ज़िंदगी को किसी ने अपना नहीं समझा ।” दिपाली कुछ सोच कर मुस्कुराई । उसका चश्मा अभी भी उतरा नहीं था ।
“तो बाकी सब कैसे हैं ? अनुपमा और राघव की भी शादी हो गई होगी ना ?” वैभव ने दिपाली के दोनो भाई बहनों के बारे में पूछा
“हाँ अनुपमा अपनी फैमिली के साथ पैरिस में सैटल है और राघव इंटीरियर डिज़ाईनर है । उसकी लाईफ भी सैट है ।”
“और मम्मी पापा ?”
“मम्मी की तो पिछले दिसंबर में डेथ हो गई उसके बाद पापा भी बिमार ही रहते हैं ।” दिपाली ने सीधा सा जवाब दिया ।
“ओह, आई एम साॅरी ।”
“इट्स ओके ।” इसके बाद कुछ देर खामोशी रही
“और तुम कैसी हो ?”
“शुक्र है तुम्हें मेरा याद तो है । मुझे लगा भूल ही गये तुम मेरा हाल पूछना । वैसे मैं जैसी हूँ तुम्हारे सामने हूँ ।” अपने ही सवाल पर वैभव खुद शर्मिंदा सा हो गया ।
“और तुम्हारा परिवार, मतलब बच्चे और तुम्हारे पति ?”
“हाँ सब ठीक हैं ।” सीधे और सपाट जवाब के बाद काले चश्मे की हद को तोड़ता हुआ एक आँसू उसके गालों से होता हुआ होंठों में समा गया ।
“रो क्यों रही हो ?”
“कुछ नहीं बस अपने प्यार की कमज़ोरी पर रो रही हूँ ।”
“प्यार की कमज़ोरी ?”
“हाँ प्यार की कमज़ोरी । तुम्हें इतना तक भरोसा हो गया कि मैं तुम्हारी जगह किसी और को दे सकती हूँ तो ये मेरे प्यार की कमज़ोरी ही है ।”
“मतलब तुमने शादी……?”वैभव एक दम चौंक गया ।
“आत्मा का सुकून तुम छीन कर ले गये थे और तन को भूख कभी महसूस ही नहीं हुई । इसलिए शादी ही नहीं की ।” वैभव निःशब्द था । ना जाने उसकी सोच दिपाली के दिल तक कैसे पहुंच गई थी ।
“वैभव यू नो, मैने तुम्हें सिर्फ प्यार नहीं बल्कि तुम्हारी पूजा की है । तुम जब मुझे समझा कर घर भेजा तब बहुत बुरा लगा मगर फिर समझ आया कि तुम्हारी सोच कितनी पवित्र है । मेरे परिवार को तुम पसंद नहीं थे तो तुमसे शादी नहीं की मुझे उनकी पसंद का कोई मंज़ूर नहीं था इसीलिए मैने भी शादी नहीं की । तुम्हारी हाल की सारी खबर थी मुझे । तुम्हारी चैरीटी को हर महीने बीस हज़ार का चैक मैं ही भेजती रही । सोचा कि मैं तो साथ रह कर मदद नहीं कर सकी मगर मेरे कमाए पैसे तुम्हारे नेक मकसद में काम आ ही सकते हैं । पापा का सारा बिजनस मैं संभालती हूँ क्योंकि राघव को पापा के नहीं बल्कि अपनी कमाई के पैसे चाहिए थे । मैं बिजनेस को चला कर उसके प्राफिट का एक तिहाई राघव के लिए बचाती हूँ और बाकी में अपनी ज़िंदगी की ज़रूरतें और तुम्हारे जैसा कुछ नेक करने की कोशिश करती हूँ ।” सारी बात बताते बताते दिपाली का चश्मा उतर चुका था और उसके उतरते ही सालों से बंधे आँसुओं का बांध भी टूट गया था ।
वैभव दिपाली के पास आ चुका था । बोलने के लिये उसके पास कुछ था नहीं अब । उसने दिपाली को गले लगा कर उसे चुप कराया । इसके बाद बहुत सी बातें करने करते करते कब तीन घंटे बीत गये पता भी नहीं चला । अब दों को चलना था ।
विदा लेने से पहले दिपाली ने वैभव से कहा “कुछ मांग सकती हूँ ?”
“जान छोड़ कर उछ भी मांग लो । कुछ वक्त पहले तक वो भी दे देता मगर अब नहीं दे सकता ।” वैभव ने मुस्कुरा कर अपना बारह साल पहले का डाॅयलाॅग दोहराया ।
“मेरा बिजनेस मेरे ना होने पर भी चलता रहेगा । अगर तुम हाँ कह दो तो मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे ट्रस्ट और वहाँ के बच्चों की देखभाल में मदद कर सकती हूँ ?” वैभव कुछ देर सोचने के बाद बोला ।
“अगर तुम ये टाॅप जींस की जगह सूट सलवार पहन सको तो ज़रूर चलो ।” इसके बाद दोनों हंस पड़े ।
“हाँ ठीक है मगर तुम भी सिर्फ नीली शर्टस ही पहनना ।” दोनों मुस्कारा दिये । डूबते सूरज के साथ उनकी जुदाई का दिन भी ढल रहा था ।
दुनिया भले मोहब्बतों को अलग करने के लाख यतन करती रहे मगर कहानियों में मोहब्बत को मुकम्मल होने से भला कौन रोक सकता है ।