शहर में वो नया-नया आया था। एक भली सी शहरी लड़की को दिल भी दे बैठा। किस्मत साथ थी तो कहानी मुलाकातों तक बढ़ चली। दोनों ही अक्सर खाने-पीने साथ जाते। उन्हें साउथ इंडियन बेहद पसंद था। उस बेचारे को छुरी-कांटों से खाने में बहुत उलझन होती थी। इस्तेमाल करने नहीं आते थे तो संकोच भी होता था लेकिन अपनी बनावटी कस्बाई हनक में शर्म छिपाता था। अक्सर तन कर कहता- हम तो ऐसे ही हैं। लड़की बेचारी बिना छुरी-कांटे के खा नहीं पाती थी। बहरहाल प्रेमिका की सोहबत में आखिर कब तक अकड़ा रहता सो छुरी-कांटे से खाने की ट्रेनिंग लेने लगा। दोनों साथ घूमते-फिरते.. फिर भूख लगने पर शहर के अच्छे रेस्तरां में जाया करते। कोने की टेबल पर बैठ लड़की छुरी-चम्मच से झटपट डोसे का पोस्टमॉर्टम जैसा कर देती.. वो उसे हौले-हौले फॉलो करता। इस दौरान लड़के की कोशिश रहती कि उसकी कवायद देख कोई पहचान ना ले कि उसे छुरी-कांटे का इस्तेमाल नहीं आता। एक दिन यही सब करते-करते कांटा हाथ से छूट नीचे जा गिरा। शांत सी दोपहर में सबका ध्यान दो पल के लिए उनकी तरफ चला गया। काफी देर तक वो झेंप में यूं ही बैठा रहा। उस दिन के बाद उसने फिर कभी छुरी- कांटे नहीं उठाए। रेस्तरां तो दोनों अब भी जाते हैं… मालूम चला है कि अब लड़की हाथों से डोसा खाती है….
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